चिपको आंदोलन (Chipko Aandolan)

चिपको आंदोलन (Chipko Movement) किसने शुरू किया था ? चिपको आंदोलन क्या है और यह आंदोलन क्यों शुरू किया था ?
जानें चिपको आंदोलन के बारे में महत्वपूर्ण जानकरी
•जब भी पर्यावरण संरक्षण (Environment Protection) की बात आती है, तो उत्तराखंड (Uttarakhand) के पर्वतीय क्षेत्र में 80 के दशक में चले एक अनूठे आन्दोलन ‘चिपको आंदोलन’ (Chipko Andolan) का जिक्र होना स्वाभाविक है। वन संरक्षण के इस अनूठे आंदोलन ने न सिर्फ देश भर में पर्यावरण के प्रति एक नई जागरूकता पैदा की बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ‘इको फेमिनिज़्म (Eco Feminism )’ या ‘नारीवादी पर्यावरणवाद’ का एक नया मुहावरा भी विकसित किया। उत्तराखण्ड राज्य का चिपको आन्दोलन एक घटना मात्र नहीं है। यह पर्यावरण व प्रकृति की रक्षा के लिए सतत चलने वाली एकप्रक्रिया है।
चिपको आन्दोलन का मतलब
•चिपको आन्दोलन का अर्थ है कि पेड़ों को बचाने के लिये पेड़ों से चिपक कर जान दे देना, लेकिन पेड़ों को काटने नहीं देना ।
क्या है चिपको आंदोलन के पीछे की कहानी
•भारत में पहली बार 1927 में ‘वन अधिनियम (वन अधिनियम 1927)’ को लागू किया गया था। इस अधिनियम के कई प्रावधान आदिवासी और जंगलों में रहने वाले लोगों के हितों के खिलाफ थे। ऐसी ही नीतियों के खिलाफ 1930 में टिहरी में एक बड़ी रैली का आयोजन किया गया था। अधिनियम के कई प्रावधानों के खिलाफ जो विरोध 1930 में शुरू हुआ था, वह 1970 में एक बड़े आंदोलन के रूप में सबके सामने आया जिसका नाम ‘चिपको आंदोलन’ रखा गया। 1970 से पहले महात्मा गांधी के एक शिष्य सरला बेन ने 1961 में एक अभियान की शुरुआत की, इसके तहत उन्होंने लोगों को जागरुक करना शुरू किया। 30 मई 1968 में बड़ी संख्या में आदिवासी पुरुष और महिलाएं पर्यावरण संरक्षण के मुहिम के साथ जुड़ गए। इस प्रकार आगे चलकर इन्हीं छोटे-छोटे आंदोलनों से मिलकर एक विश्वव्यापी जनांदोलन की शुरुआत हुई।
चिपको आन्दोलन की शुरुआत
•1974 में वन विभाग ने जोशीमठ के रैणी गाँव के क़रीब 680 हेक्टेयर जंगल ऋषिकेश के एक ठेकेदार को नीलाम कर दिया। इसके अंतर्गत जनवरी 1974 में रैंणी गांव के 2459 पेड़ों को चिन्हीत किया गया। 23 मार्च को रैंणी गांव में पेड़ों का कटान किये जाने के विरोध में गोपेश्वर में एक रैली का आयोजन हुआ, जिसमें गौरा देवी ने महिलाओं का नेतृत्व किया।
•प्रशासन ने सड़क निर्माण के दौरान हुई क्षति का मुआवजा देने की तिथि 26 मार्च तय की गई, जिसे लेने 1 के लिये सभी को चमोली आना था। इसी बीच वन विभाग ने सुनियोजित चाल के तहत जंगल काटने के लिये ठेकेदारों को निर्देशित कर दिया कि 26 मार्च को चूंकि गांव के सभी मर्द चमोली में रहेंगे और समाजिक कायकर्ताओं को वार्ता के बहाने गोपेश्वर बुला लिया जायेगा और आप मजदूरों को लेकर चुपचाप रैंणी चले जाओ और पेड़ों को काट डालो। इसी योजना पर अमल करते हुये श्रमिक रैंणी की ओर चल पड़े। इस हलचल को एक लड़की द्वारा देख लिया गया और उसने तुरंत इससे गौरा देवी को अवगत कराया। पारिवारिक संकट झेलने वाली गौरा देवी पर आज एक सामूहिक उत्तरदायित्व आ पड़ा। गांव में उपस्थित 21 महिलाओं और कुछ बच्चों को लेकर वह जंगल की ओर चल पड़ी। ठेकेदार और जंगलात के आदमी उन्हें डराने-धमकाने लगे। लेकिन अपने साहस का प्रदर्शन करते हुए उन्होंने डटकर उनका सामना किया। और उन्होंने गाँव की महिलाओं को गोलबंद किया और पेड़ों से चिपक गए।ठेकेदार व मजदूरो को इस विरोध का अंदाज़ न था। जब सैकड़ों की तादाद में उन्होंने महिलाओं को पेड़ों से चिपके देखा तो उनके होश उड़ गये। उन्हें खाली हाथ लौटना पड़ा और इस तरह यह विरोध चलता रहा।
•उस समय अलकनंदा घाटी से उभरा चिपको का संदेश जल्दी ही दूसरे इलाकों में भी फैल गया। नैनीताल और अल्मोड़ा में आंदोलनकारियों ने जगह-जगह हो रहे जंगल की नीलामी को रोका।
•टिहरी से ये आंदोलन सुन्दरलाल बहुगुणा के द्वारा शुरू किया गया, जिसमे उन्होंने गाँव-गाँव जाकर लोगो में जागरूकता लाने के लिये 1981 से 1983 तक लगभग 5000 कि.मी. लम्बी ट्रांस हिमालय पदयात्रा की। और 1981 में हिमालयी क्षेत्रों में एक हज़ार मीटर से ऊपर के जंगल में कटाई पर पूरी पाबंदी की मांग लेकर आमरण अनशन पर बैठे। इसी तरह से कुमाँऊ और गढ़वाल के विभिन्न इलाकों में अलग-अलग समय पर चिपको की तर्ज पर आंदोलन होते रहे।
•अंतत: सरकार ने एक समिति बनाई जिसकी सिफारिश पर इस क्षेत्र में जंगल काटने पर 20 सालों के लिये पाबंदी लगा दी गई।
चिपको आंदोलन के मुख्य उद्देश्य
1. आर्थिक स्वावलम्बन के लिए वनों का व्यापारिक दोहन बंद किया जाए।
2. प्राकृतिक संतुलन के लिए वृक्षारोपण के कार्यों कोगति दी जाए।
3. चिपको आंदोलन की स्थापना के पश्चात् चिपको आंदोलनकारियों द्वारा एक नारा दिया गयाl
चिपको आन्दोलन का घोषवाक्य है–
“”क्या हैं जंगल के उपकार, मिट्टी, पानी और बयार ।
मिट्टी, पानी और बयार, जिन्दा रहने के आधार ।””
•सन 1987 में इस आन्दोलन को सम्यक जीविका पुरस्कार (Right Livelihood Award) से सम्मानित किया गया था।
आंदोलन का प्रभाव
•इस आंदोलन की मुख्य उपलब्धि ये रही कि इसने केंद्रीय राजनीति के एजेंडे में पर्यावरण को एक सघन मुद्दा बना दिया जैसा कि चिपको के नेता रहे कुमाँऊ यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर डॉ. शेखर पाठक कहते हैं, “1980 का वन संरक्षण अधिनियम और यहाँ तक कि केंद्र सरकार में पर्यावरण मंत्रालय का गठन भी चिपको की वजह से ही संभव हो पाया. “
•उत्तर प्रदेश (वर्तमान उत्तराखण्ड) में इस आंदोलन ने 1980 में तब एक बड़ी जीत हासिल की, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने प्रदेश के हिमालयी वनों में वृक्षों की कटाई पर 15 वर्षों के लिए रोक लगादी। बाद के वर्षों में यह आंदोलन पूर्व में बिहार, पश्चिम में राजस्थान, उत्तर में हिमाचल प्रदेश, दक्षिण में कर्नाटक , और मध्य भारत में विंध्य तक फैला। उत्तर प्रदेश में प्रतिबंध के अलावा यह आंदोलन पश्चिमी घाट और विंध्य पर्वतमाला में वृक्षों की कटाई को रोकने में सफल रहा। साथ ही यह लोगों की आवश्यकताओं और पर्यावरण के प्रति अधिक सचेत प्राकृतिक संसाधन नीति के लिए दबाब बनाने में भी सफल रहा।
•चिपको आंदोलन प्रारंभ में त्वरित आर्थिक लाभ का विरोध करने का एक सामान्य आंदोलन था किंतु बाद में इसे पर्यावरण सुरक्षा का तथा स्थाई अर्थव्यवस्था का एक अभिनव आंदोलन बना दिया। चिपको आंदोलन से पूर्व वनों का महत्व मुख्य रूप से वाणिज्यिक था। व्यापारिक दृष्टि से ही वनों का बड़े पैमाने पर दोहन किया जाता था। चिपको आंदोलनकारियों द्वारा वनों के पर्यावरणीय महत्व की जानकारी सामान्य जन तक पहुंचाई जाने लगी।
• चिपको आन्दोलन की सूत्रधार श्रीमती गौरा देवी(Smt. Gaura Devi) थी।
• इस आन्दोलन को शिखर तक पहुचने का काम पर्यावरणविद सुन्दरलाल बहुगुणा ने किया।
• सन 1981 में सुन्दरलाल बहुगुणा को पद्मश्री पुरस्कार दिया गया लेकिन उन्होंने स्वीकार नहीं किया कि क्योंकि उन्होंने कहाँ “जब तक पेड़ों की कटाई जारी है, मैं अपने को इस सम्मान के योग्य नहीं समझता हूँ।”
• इस आन्दोलन को 1987 में सम्यक जीविका पुरस्कार (Right Livelihood Award) से सम्मानित किया गया।